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ग़ज़ल
दस्त-ए-क़ातिल से कुछ उम्मीद-ए-शफ़ा थी लेकिन
नोक-ए-ख़ंजर से भी काँटा न गुलू का निकला
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
दुआ को हाथ क्यूँ उट्ठे मिरे तीमार-दारों के
ज़बाँ से क्यूँ नहीं कहते कि उम्मीद-ए-शफ़ा कम है
मेला राम वफ़ा
ग़ज़ल
कैसी ख़ुश-फ़हमी तुम्हें किस बात का ग़र्रा 'उमीद'
आ गए हैं अक़रबा वक़्त-ए-अज़ाँ होने लगा
उम्मीद ख़्वाजा
ग़ज़ल
नश्शा-ए-दहर-ओ-क़यामत का तो क्या ज़िक्र 'उमीद'
वो मिरा सर्व-ए-सर-अफ़राज़ जुदा है सब से
उम्मीद फ़ाज़ली
ग़ज़ल
मैं भी इस शहर-ए-ख़मोशाँ का ही साकिन हूँ 'उमीद'
जिस की हर लौह पे तहरीर है आज़ार के साथ
उम्मीद ख़्वाजा
ग़ज़ल
सर-ब-ज़ानू थीं तमन्नाएँ न जाने कब से
चश्म-ए-'उम्मीद' भी ख़ूँ-नाबा-फ़शाँ है अब के
अली अब्बास उम्मीद
ग़ज़ल
हम-सफ़र शाइस्तगी थी रहगुज़ार-ए-ज़ीस्त में
फिर भी जिस से बात की हर बात गाली हो गई