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ग़ज़ल
‘उक़ाबी ज़ोर ख़ुश-फ़हमी में अक्सर टूट जाता है
हवाएँ घेर लेती हैं तो शहपर टूट जाता है
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
तुंदी-ए-बाद-ए-मुख़ालिफ़ से न घबरा ऐ उक़ाब
ये तो चलती है तुझे ऊँचा उड़ाने के लिए