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ग़ज़ल
सर-ए-तस्लीम है ख़म इज़्न-ए-उक़ूबत के बग़ैर
हम तो सरकार के मद्दाह हैं ख़िलअत के बग़ैर
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
कई बार उस ने देखा आज चश्म-ए-क़हर से हम को
सज़ा-वार-ए-उक़ूबत तो हुए ऐ बख़्त बारे हम
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
लगे क्यों डर उक़ूबत का भरोसा है अगर हम को
वही है दावर-ए-महशर है डोरी जिस के हाथ अपनी