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ग़ज़ल
बद-ज़बानी बाप से और बद-सुलूकी वालिदा से
दौर-ए-हाज़िर का नया दस्तूर होती जा रही है
असद बिजनौरी अलीग
ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं
तिरी दास्ताँ कोई और थी मिरा वाक़िआ कोई और है
सलीम कौसर
ग़ज़ल
तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत
कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं