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ग़ज़ल
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो
शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
ब-ज़ाहिर सादगी से मुस्कुरा कर देखने वालो
कोई कम-बख़्त ना-वाक़िफ़ अगर दीवाना हो जाए
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
गुनह-गारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाक़िफ़
सज़ा को जानते हैं हम ख़ुदा जाने ख़ता क्या है
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
तू मिरे लम्स की तासीर से वाक़िफ़ ही नहीं
तुझ को छू लूँ तो तिरे जिस्म का हिस्सा हो जाऊँ
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
आइना मेरे शब ओ रोज़ से वाक़िफ़ ही नहीं
कौन हूँ क्या हूँ मुझे याद दिलाया न करे