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ग़ज़ल
क्या कम है करम ये अपनों का पहचानने वाला कोई नहीं
जो देस में भी परदेसी हैं उन हम-वतनों की याद आई
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
हम-वतनों के दर्द का दरमाँ ऐसा कुछ दुश्वार नहीं
नाम-ए-वतन है इस्म-ए-आज़म ख़ाक-ए-वतन इक्सीर लिखो
इलियास इश्क़ी
ग़ज़ल
मैं वो परदेसी नहीं जिस का न हो पुरसाँ कोई
सब्ज़ बाग़ों के परिंदे मेरे वतनों के नक़ीब
अली अकबर नातिक़
ग़ज़ल
छोड़ना घर का हमें याद है 'जालिब' नहीं भूले
था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िंदाँ तो नहीं था
हबीब जालिब
ग़ज़ल
सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन
तो चश्म-ए-सुब्ह में आँसू उभरने लगते हैं