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ग़ज़ल
क्यूँ साज़-ओ-बर्ग-ए-हस्ती करता है तू मुहय्या
दुनिया को है अज़ल से ज़ौक़-ए-फ़ना-परस्ती
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
लहलहाते थे चमन मफ़्तूँ गुलों पर थे बहार
लुट गई बू-बास ऐ बर्ग-ए-ख़िज़ानी अब कहाँ
आग़ा हज्जू शरफ़
ग़ज़ल
शिकस्त-ए-साज़-ए-चमन थी बहार-ए-लाला-ओ-गुल
ख़िज़ाँ मचलती थी ग़ुंचा जहाँ चटकता था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
आज़ुर्दा इस चमन में हूँ मानिंद-ए-बर्ग-ए-ख़ुश्क
छेड़े जो टुक नसीम मुझे सौ ग़ुलू करूँ