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ग़ज़ल
इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
दिल धड़कता हुआ सीने में मिला था मुझ को
भारत भूषण पन्त
ग़ज़ल
लिखता हूँ नई नज़्म-ओ-ग़ज़ल जिस के सबब मैं
वो ज़ौक़-ए-सुख़न तो मुझे विर्से में मिला है
बदीउज़्ज़माँ ख़ावर
ग़ज़ल
इस अहद में क्या रक्खा था जिस पे बसर होती
क्या होता जो विर्से में मिलता न ख़ुदा मुझ को
शुजा ख़ावर
ग़ज़ल
तुले हैं हाथ जो विर्से पे साफ़ करने पर
किसी भी दौर का बाक़ी निशाँ न रक्खेंगे