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ग़ज़ल
गूँज उठा नग़्मा-ए-कुन दश्त-ए-तमन्ना में 'वहीद'
पा-ए-वहशत हद-ए-इम्काँ से जो बाहर निकला
वहीद अख़्तर
ग़ज़ल
मुझ को है कैफ़-ए-इश्क़ से निस्बत वही 'बशीर'
निस्बत है जैसे नय को ख़ुद अपनी सदा के साथ
सय्यद बशीर हुसैन बशीर
ग़ज़ल
ये मुशाहिदा है मेरा रह-ए-ज़िंदगी में 'बासिर'
वही मुँह के बल गिरा है जो चला सँभल सँभल के
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
चारागर ख़तरा-ए-जाँ कहते थे जिस को 'बासिर'
वही ग़म बाइस-ए-आराम-ए-रग-ए-जाँ निकला
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है