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ग़ज़ल
जाती हुई मय्यत देख के भी वल्लाह तुम उठ के आ न सके
दो चार क़दम तो दुश्मन भी तकलीफ़ गवारा करते हैं
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
क्यों हमारी हस्ती को है बारहा ललकारा जाता
क्या वजह है क्यों हमारा ख़ूँ बहाया जा रहा है
गुरबीर छाबरा
ग़ज़ल
हक़-गो हैं हक़-शनास हैं और हक़-परस्त भी
'साजिद' इसी वजह से बहुत खल रहे हैं हम