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ग़ज़ल
यूँ तो जो चाहे यहाँ साहब-ए-महफ़िल हो जाए
बज़्म उस शख़्स की है तू जिसे हासिल हो जाए
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
बहार-ए-गुल बने बैठे हो तुम ग़ैरों की महफ़िल में
कोई ऐसे में हो जाए जो दीवाना तो क्या होगा
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए
मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
जो बज़्म-ए-उन्स में चाहे कि शम-ए-महफ़िल हो
तू दिल में इश्क़ से पैदा ज़रा गुदाज़ करे
ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर
ग़ज़ल
जब जाँ पे लब-ए-जानाँ की महक इक बारिश मंज़र हो जाए
हम हाथ बढ़ाएँ और इस में महताब गुल-ए-तर हो जाए
जमशेद मसरूर
ग़ज़ल
अगर काबे का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाए
तो फिर सज्दा मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए