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ग़ज़ल
अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
किसी मजनूँ की सोहबत बैठ दीवाने हुए होते
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
उस के लिए भी ग़म-ज़ा-ए-नाज़-ओ-अदा का वक़्त है
अपने लिए भी मौसम-ए-हिज्र-ओ-विसाल है नया
अतहर नफ़ीस
ग़ज़ल
जब उस की बर्क़-ए-हुस्न से पर्दा हुआ है वा
ज़ाए हुए हैं तालिब-ए-दीदार हर तरफ़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
वक़्त का रोना रोने वाले वक़्त को ज़ाए करते हैं
पलकों से लम्हों की किर्चें चुनने का सामान करें
शाकिर ख़लीक़
ग़ज़ल
क्या बताऊँ मुझ को आख़िर ज़िंदगी से क्या मिला
'उम्र जो थी रफ़्तगाँ के ग़म में ज़ाए' हो गई
मुबश्शरा महफ़ूज़
ग़ज़ल
मक़्तल-ए-इश्क़ में हम रोज़-ए-अज़ल से यारो
बिस्मिल-ए-ग़मज़ा-ए-ख़ूँ-ख़्वार हैं किन के उन के
मोहम्मद अमान निसार
ग़ज़ल
मुश्त-ए-ख़ाक अपनी को आलम में न ज़ाए' कर 'अज़ीज़
हिन्द से ले ता-नजफ़ ऐ बू-तुराबी तू पहुँच