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ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हम दर्द-ब-दिल नालाँ वो दस्त-ब-दिल हैराँ
ऐ इश्क़ तो क्या ज़ालिम तेरा ही ज़माना है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
कोई मक़्तल में न पहुँचा कौन ज़ालिम था जिसे
तेग़-ए-क़ातिल से ज़ियादा अपना सर अच्छा लगा
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
दोस्त बन कर दुश्मनों सा वो सताता है मुझे
फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फ़लत-शिआरी हाए हाए
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो
हमें आता है पतझड़ के दिनों गुल-बार हो जाना
अदा जाफ़री
ग़ज़ल
जो ज़ंजीरों से बाहर हैं आज़ाद उन्हें भी मत समझो
जब हाथ कटेंगे ज़ालिम के उस वक़्त कटेंगी ज़ंजीरें
हफ़ीज़ मेरठी
ग़ज़ल
कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है