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ग़ज़ल
समझे हैं अहल-ए-शर्क़ को शायद क़रीब-ए-मर्ग
मग़रिब के यूँ हैं जम्अ' ये ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
मुझे आता है क्या क्या रश्क वक़्त-ए-ज़ब्ह उस से भी
गला जिस दम लिपट कर ख़ंजर-ए-क़ातिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
ज़ब्ह कर के मुझे नादिम ये हुआ वो क़ातिल
हाथ में फिर कभी ख़ंजर न लिया मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
ग़ज़ल
'मोमिन' वही ग़ज़ल पढ़ो शब जिस से बज़्म में
आती थी लब पे जान ज़ह-ओ-हब्बज़ा के साथ
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
ज़ुल्म से गर ज़ब्ह भी कर दो मुझे परवा नहीं
लुत्फ़ से डरता हूँ ये मेरी क़ज़ा हो जाएगा
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
उधर मुँह फेर कर क्या ज़ब्ह करते हो इधर देखो
मिरी गर्दन पे ख़ंजर की रवानी देखते जाओ
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
इरादा मेरे खाने का न ऐ ज़ाग़-ओ-ज़ग़न कीजो
वो कुश्ता हूँ जिसे सूँघे से कुत्तों का बदन बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
इंतिख़ाब-ए-अहल-ए-गुलशन पर बहुत रोता है दिल
देख कर ज़ाग़-ओ-ज़ग़्न को ख़ुश-नवाओं की जगह
हबीब जालिब
ग़ज़ल
जहाँ इंसानियत वहशत के हाथों ज़ब्ह होती हो
जहाँ तज़लील है जीना वहाँ बेहतर है मर जाना
गुलज़ार देहलवी
ग़ज़ल
ज़मज़मे सुन कर मिरे सय्याद-ए-गुल-रू ने कहा
ज़ब्ह कीजे ऐसे बुलबुल को न छोड़ा चाहिए