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ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
उड़ चला और भी वो रश्क-ए-परी-ज़ादाँ से
बन गए हुस्न के परवाज़ को शहपर गेसू
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
ग़ज़ल
था जहाँ ये कुछ अयाँ वाँ इंक़लाब-ए-दौर से
यक मिज़ा बरहम ज़दन में कुछ न था वीराना था
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मुख़बिरी मेरी हुई चश्म-ए-ज़दन में कैसी
क़स्र-ए-दिल ही में सारा था कि मिस्मार हुआ
ख़ालिद इक़बाल यासिर
ग़ज़ल
ख़त्म है शब चेहरा-ए-मशरिक़ से उठती है नक़ाब
दम-ज़दन में रौशनी ही रौशनी हो जाएगी
जगत मोहन लाल रवाँ
ग़ज़ल
निकली ज़बान-ए-शम्अ से क्या बात रात को
सुनते ही जिस को बज़्म में परवाना जल गया
सरदार गंडा सिंह मशरिक़ी
ग़ज़ल
जूँ अश्क-ए-सर-ए-मिज़्गाँ हम फिर न नज़र आए
अज़-बस-के यहाँ वक़्फ़ा इक चश्म-ए-ज़दन का था