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ग़ज़ल
अरे ओ जाओ!! यूँ सर न खाओ!! हमारा उस से मुक़ाबला क्या?
न वो ज़हीन-ओ-फ़तीन यारो न वो हसीं है न शाएरा है
फ़रीहा नक़वी
ग़ज़ल
ज़हीन इतनी है उस से बहस तो हम कर नहीं सकते
मुझे मंटो के अफ़्साने बिला-नाग़ा सुनाती है
अज़ीम कामिल
ग़ज़ल
अब भूल चुके अपने ख़द-ओ-ख़ाल तो क्या है
हम लोग किसी दौर में हद-दर्जा ज़हीं थे