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ग़ज़ल
सब से बेहतर है कि मुझ पर मेहरबाँ कोई न हो
हम-नशीं कोई न हो और राज़-दाँ कोई न हो
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
सब से बेहतर है कि मुझ पर मेहरबाँ कोई न हो
हम-नशीं कोई न हो और राज़दाँ कोई न हो
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
क्यूँ आईने में देखा तू ने जमाल अपना
देखा तो ख़ैर देखा पर दिल सँभाल अपना
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
अच्छा हुआ कि दम शब-ए-हिज्राँ निकल गया
दुश्वार था ये काम पर आसाँ निकल गया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
ये कैसा दौर आया ‘ज़ैन’ दुनिया में सहाफ़त की
तअ'स्सुब की सियाही से भरे अख़बार रहते हैं
ज़ैन एहतराम
ग़ज़ल
हम को उस शोख़ ने कल दर तलक आने न दिया
दर-ओ-दीवार को भी हाल सुनाने न दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
मर जाएँगे लेकिन कभी उल्फ़त न करेंगे
हम जीने को अपने ये मुसीबत न करेंगे
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
ना-तवानी में पलक को भी हिलाया न गया
देख के उन को इशारे से बुलाया न गया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
उस पे करना मिरे नालों ने असर छोड़ दिया
मुझ को एक लुत्फ़ की कर के जो नज़र छोड़ दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
न पर्दा खोलियो ऐ इश्क़ ग़म में तू मेरा
कहीं न सामने उन के हो ज़र्द रू मेरा
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
हर घड़ी चलती है तलवार तिरे कूचे में
रोज़ मर रहते हैं दो चार तिरे कूचे में
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
क्या कहें हम थे कि या दीदा-ए-तर बैठ गए
क़ुल्ज़ुम-ए-अश्क में जूँ लख़्त-ए-जिगर बैठ गए