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ग़ज़ल
ज़र्रा ज़र्रा आइना था ख़ुद-नुमाई का 'फ़िराक़'
सर-ब-सर सहरा-ए-आलम जल्वा-ज़ार-ए-यार था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
चकबस्त ब्रिज नारायण
ग़ज़ल
इश्क़ की मायूसियों में सोज़-ए-पिन्हाँ कुछ नहीं
इस हवा में ये चराग़-ए-ज़ेर-ए-दामाँ कुछ नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना
अजल क्या है ख़ुमार-ए-बादा-ए-हस्ती उतर जाना
चकबस्त ब्रिज नारायण
ग़ज़ल
रस्म-ओ-राह-ए-दहर क्या जोश-ए-मोहब्बत भी तो हो
टूट जाती है हर इक ज़ंजीर वहशत भी तो हो
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं
ख़ाक उड़ाते फिरते हैं जो दीवाने दीवाने हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ये जो उठती कोंपल है जब अपना बर्ग निकालेगी
डाली डाली चाटेगी और पत्ता पत्ता खा लेगी