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ग़ज़ल
ज़ेर-ए-ज़मीं दबी हुई ख़ाक को आसाँ कहो
हर्फ़-ए-ख़राब-ओ-ख़स्ता को ज़िद है कि दास्ताँ कहो
शमीम हनफ़ी
ग़ज़ल
बदन बाँधे हुए साँसों की रहदारी में रहते हैं
कि हम हर दम कहीं जाने की तय्यारी में रहते हैं
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
पत्थर के लोग हैं जहाँ शीशे के बाम-ओ-दर
हम उस ज़मीं में दर्द-ए-वफ़ा बो नहीं सके
ख़लील-उर-रहमान राज़
ग़ज़ल
मिटा देते हैं हस्ती को रिया-कारी नहीं करते
तिरे बंदे दिखावे की वफ़ादारी नहीं करते