बदन बाँधे हुए साँसों की रहदारी में रहते हैं
बदन बाँधे हुए साँसों की रहदारी में रहते हैं
कि हम हर दम कहीं जाने की तय्यारी में रहते हैं
न हों आँसू तो ये आँखें भली लगती नहीं हम को
सो अक्सर आप अपनी ही दिल-आज़ारी में रहते हैं
हमें मा'लूम है रौनक़ ये बाज़ारों की झूटी है
मगर फिर भी फ़रेब-ए-हुस्न-ए-बाज़ारी में रहते हैं
हम अहल-ए-'इश्क़ फिर अहल-ए-हवस से मात खा बैठे
वज़ीफ़ा-ख़्वार बज़्म-ए-हुस्न-ए-दरबारी में रहते हैं
हमारे दिल तो हैं मसरूफ़ सरकारें गिराने में
बदन ता'मील-ए-अहकामात-ए-सरकारी में रहते हैं
दबे हैं ख़ाक में कितने ही सूरज चाँद और तारे
सो हम अपनी ज़मीं की आसमाँ-कारी में रहते हैं
हमारी शा'इरी इक मुस्तक़िल होली का मौसम है
हज़ारों रंग इस लफ़्ज़ों की पिचकारी में रहते हैं
‘जनाब-ए-फ़रहत-एहसास' अब न शहरी हैं न सहराई
मुसलसल दरमियान-ए-ख़्वाब-ओ-बे-दारी में रहते हैं
- पुस्तक : मोहब्बत कर के देखो ना (पृष्ठ 120)
- रचनाकार : फ़रहत एहसास
- प्रकाशन : रेख़्ता पब्लिकेशंस (2019)
- संस्करण : First
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