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ग़ज़ल
गुल के ख़्वाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्र-फ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़मा-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मेरी ही ज़मज़मा-संजी से चमन था आबाद
किया सय्याद ने इक इक को रिहा मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
ग़ज़ल
है बुल-अजब ये ज़मज़मा-ए-सौत-ए-सरमदी
किस तरह आए मा'रिज़-ए-गुफ़्त-ओ-शुनूद में
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
गो ज़मज़मा-ए-देहली ओ कू लहजा-ए-पूरब
क्यूँ उस की तरफ़ होते हो नाहक़ को रज़ालो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
हम रिवायात के मुनकिर नहीं लेकिन 'मजरूह'
ज़मज़मा-संज मिरा ख़ून-ए-जिगर है कि नहीं
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ये ज़मज़मा तुयूर-ए-ख़ुश-आहंग का नहीं
है नग़्मा-संज बुलबुल-ए-रंगीं-नवा-ए-क़ल्ब
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
ज़मज़मा साज़ का पायल की छनाके की तरह
बेहतर-अज़-शोरिश-ए-नाक़ूस-ओ-अज़ाँ है साक़ी