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ग़ज़ल
है ज़िक्र-ए-यार क्यूँ शब-ए-ज़िंदाँ से दूर दूर
ऐ हम-नशीं ये तर्ज़ ग़ज़ल का कभी न था
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
बहार आई चमन में नग़्मा-संजी-ए-‘अनादिल है
पस-ए-दीवार-ए-ज़िंदान-ए-जुनूँ शोर-ए-सलासिल है
पंडित त्रिभुवननाथ ज़ुतशी ज़ार देहलवी
ग़ज़ल
अश्क ने गिर्दाब बाँधा है हमारे आस-पास
क्यूँकि निकला जाए ये ज़िंदान-ए-बहर-ए-इश्क़ है
आरिफ़ुद्दीन आजिज़
ग़ज़ल
ज़िंदान-ए-बज़्म-ए-शौक़ में ऐसे भी रिंद हैं
तिश्ना रहे जो पी के समुंदर शराब के
इमराना मुशताक़ मानी
ग़ज़ल
ज़िंदान-ए-रंग-ओ-बू में गुज़ारी है उम्र यूँ
आज़ाद भी नहीं हूँ गिरफ़्तार भी नहीं
जगदीश सहाय सक्सेना
ग़ज़ल
ज़िंदान-ए-रंग-ओ-बू में गुज़ारी है उम्र यूँ
आज़ाद भी नहीं हूँ गिरफ़्तार भी नहीं