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ग़ज़ल
मैं वो मुर्दा हूँ कि आँखें मिरी ज़िंदों जैसी
बैन करता हूँ कि मैं अपना ही सानी निकला
साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल
मैं ऐसे शख़्स को ज़िंदों में क्या शुमार करूँ
जो सोचता भी नहीं ख़्वाब देखता भी नहीं
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
बहुत दिनों से मैं ज़िंदों में था न मुर्दों में
ग़ज़ल हुई तो मिरे दश्त में ग़ज़ाल आया
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
ज़िंदों में अब शुमार नहीं हज़रत-ए-'अज़ीज़'
कहते थे आप से कि मोहब्बत न कीजिए
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
मेरी कोशिश यही है कि ज़िंदों को साया फ़राहम करूँ
मैं किसी क़ब्र पर कोई पौदा लगाना नहीं चाहता