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ग़ज़ल
न ख़ूब ओ ज़िश्त न ऐब-ओ-हुनर को देखते हैं
ये चीज़ क्या है बशर हम बशर को देखते हैं
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
शर-पसंदों की रिआ'यत में फ़क़ीहान-ए-किराम
ज़िश्त को ख़ूब और रवा को नारवा करते रहे
ख़लील-उर-रहमान राज़
ग़ज़ल
गर कुछ हो दर्द आईना यूँ चर्ख़-ए-ज़िश्त में
इन सूरतों को सिर्फ़ करे ख़ाक-ओ-ख़िश्त में
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
रंग-ए-ख़ूब-ओ-ज़िश्त में क्यूँ फ़र्क़ समझे है 'नसीर'
ख़ार भी तू है उसी का हैं बनाए जिस के फूल
शाह नसीर
ग़ज़ल
वदीअ'त की है क़ुदरत ने वो मीज़ान-ए-नज़र मुझ को
कि ख़ूब-ओ-ज़िश्त आलम को बख़ूबी तौल सकता हूँ
सीमाब बटालवी
ग़ज़ल
कफ़्फ़ारा-ए-शराब मैं देता हूँ नक़्द-ए-होश
सरगर्म हूँ तलाफ़ी-ए-आमाल-ए-ज़िश्त में
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
सख़्त मुश्किल हो गया है इम्तियाज़-ए-ख़ूब-ओ-ज़िश्त
फूल सी पोशाक में बद-ख़ू बुरा लगता नहीं
ज़मीर अज़हर
ग़ज़ल
मैं ने कहा कनार-ए-नाज़ चाहिए इस ग़मीं से पुर
सुन के रक़ीब-ए-ज़िश्त को पास बिठा लिया कि यूँ
बयान मेरठी
ग़ज़ल
सदा मश्क़-ए-जुनून-ए-इश्क़ में रहता है सौदाई
अगर 'दाऊद' की यू ज़िश्त-ख़ू जावे तो क्या होवे
मिर्ज़ा दाऊद बेग
ग़ज़ल
बुल-हवस-ए-ज़िश्त-रू करता है नित गुफ़्तुगू
मर्द बे-इदराक सूँ ख़ूब नहीं बोलना