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ग़ज़ल
हम ज़मीं को भी 'ज़िया' महसूर कर सकते नहीं
जब कि आज इंसाँ ख़लाओं में सफ़र करने लगे
ज़िया असदी सिरोंजी
ग़ज़ल
ज़ियाँ था नाज़ मता-ए-हुनर पे ऐ 'मंज़ूर'
ये चीज़ चश्म-ए-ज़माना में अर्जुमंद न थी
मंज़ूर अहमद मंज़ूर
ग़ज़ल
अहमद ज़िया
ग़ज़ल
उरूज क़ादरी
ग़ज़ल
ज़िंदगी भर तिश्ना-लब रहना हमें मंज़ूर था
वर्ना मय-ख़ाना हमारे घर से कितनी दूर था
राही हमीदी चाँदपुरी
ग़ज़ल
वो बहुत ख़ुश है ख़िताबात-ओ-मुराआत के साथ
ख़ूब बदला वो बदलते हुए हालात के साथ