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ग़ज़ल
जामा-ए-उल्फ़त बुनते आए रिश्तों के धागों से हम
उम्र की क़ैंची काट गई अब काहे को इतनी मेहनत की
ज़ेहरा निगाह
ग़ज़ल
जहाँ नासेहों का हुजूम था वहीं आशिक़ों की भी धूम थी
जहाँ बख़िया-गर थे गली गली वहीं रस्म-ए-जामा-दरी रही
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ख़य्यात ने क़ज़ा के जामा सिया जो मेरा
आया न जी में इतना क्या इस में जोड़ डालूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
जितने हैं जामा-ज़ेब जहाँ में सभों के बीच
सजती है तेरे बर में सरापा क़बा-ए-ईद