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ग़ज़ल
दूर थे और दूर हैं हर दम ज़मीन-ओ-आसमाँ
दूरियों के बा'द भी दोनों में क़ुर्बत है तो है
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है
बशीर बद्र
ग़ज़ल
ग़िज़ा इसी में मिरी मैं इसी ज़मीं की ग़िज़ा
सदा फिर आती है क्यूँ पर्दा-ए-ख़ला से मुझे
अदीम हाशमी
ग़ज़ल
इंक़लाब-ए-पय-ब-पय हर गर्दिश ओ हर दौर में
इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम