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ग़ज़ल
रुख़्सत ऐ हम-सफ़रो शहर-ए-निगार आ ही गया
ख़ुल्द भी जिस पे हो क़ुर्बां वो दयार आ ही गया
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
कमाल-ए-इश्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं
ये किस के हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
बख़्शी हैं हम को इश्क़ ने वो जुरअतें 'मजाज़'
डरते नहीं सियासत-ए-अहल-ए-जहाँ से हम
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूस-ए-मिज़ाज-ए-दिल नहीं मिलता
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
देख सकता हूँ जो आँखों से वो काफ़ी है 'मजाज़'
अहल-ए-इरफ़ाँ की नवाज़िश मुझे मंज़ूर नहीं
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
आओ अब मिल के गुलिस्ताँ को गुल्सिताँ कर दें
हर गुल-ओ-लाला को रक़्साँ ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ कर दें
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
बस इस तक़्सीर पर अपने मुक़द्दर में है मर जाना
तबस्सुम को तबस्सुम क्यूँ नज़र को क्यूँ नज़र जाना
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
'अक़्ल की सत्ह से कुछ और उभर जाना था
'इश्क़ को मंज़िल-ए-पस्ती से गुज़र जाना था