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ग़ज़ल
ये किस की लाश बे-गोर-ओ-कफ़न पामाल होती है
ज़मीं जुम्बिश में है बरहम निज़ाम-ए-आसमाँ तक है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
'फ़ानी' हम तो जीते-जी वो मय्यत हैं बे-गोर-ओ-कफ़न
ग़ुर्बत जिस को रास न आई और वतन भी छूट गया
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
पड़ा रहने दो बे-गोर-ओ-कफ़न क़ातिल के कूचे में
शहीदों की हैं लाशें उन को दफ़नाने से क्या मतलब
मोहम्मद उमर
ग़ज़ल
जो मकीं रह गए बे-गोर-ओ-कफ़न मर मर कर
ढाँपने पर वो गिरे उन का मकान-ए-देहली
तफ़ज़्ज़ुल हुसैन ख़ान कौकब देहलवी
ग़ज़ल
मिरे क़ल्ब-ओ-जिगर को देख कर बिस्मिल कोई बोला
तड़पते हैं पड़े मक़्तल में बे-गोर-ओ-कफ़न दो दो
हामिद हुसैन हामिद
ग़ज़ल
तेवर ऐसे ही हलाकू हैं जो कुछ बस हो तो वो
अक्स-ए-आदम को करें गोर-ओ-कफ़न आईने में
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
न कोई ले गया कुछ और न ले जावे कोई हरगिज़
यक़ीं गोर-ओ-कफ़न मिलने पे क्या तश्कीक हाँ ले जा