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ग़ज़ल
अभी बादबान को तह रखो अभी मुज़्तरिब है रुख़-ए-हवा
किसी रास्ते में है मुंतज़िर वो सुकूँ जो आ के चला गया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
बशीर बद्र
ग़ज़ल
वही शोरिश है लेकिन जैसे मौज-ए-तह-नशीं कोई
वही दिल है मगर आवाज़ मद्धम होती जाती है