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ग़ज़ल
अपनी ही लाश पे हैं अश्क बहाए हुए लोग
हम हैं यक-तरफ़ा मोहब्बत के सताए हुए लोग
मोहम्मद सादिक़ जमील
ग़ज़ल
बज़्म से अपनी जो इस तरह उठा देते हैं
जाने किस जुर्म की ये लोग सज़ा देते हैं
मोहम्मद फ़ैज़ुल्लाह फ़ैज़
ग़ज़ल
क्यों ये कुछ लोग मोहब्बत को बुरा कहते हैं
मैं तो कहता हूँ मोहब्बत को ख़ुदा माँगे है
मुख़्तार टोंकी
ग़ज़ल
मा'लूम नहीं कौन सी बस्ती के मकीं थे
कुछ लोग मिरी सोच से भी बढ़ के हसीं थे
मोहम्मद मुस्तहसन जामी
ग़ज़ल
ख़फ़ा हो कर ख़यालों में भी आना छोड़ देते हैं
किसी को यार इस दर्जा भी तन्हा छोड़ देते हैं
मोहम्मद आज़म
ग़ज़ल
बन-सँवर कर जो वो बाज़ार निकल जाते हैं
देखने वालों के जज़्बात मचल जाते हैं
मोहम्मद आफ़ताब अहमद साक़िब
ग़ज़ल
ये दर्द का है मुसलसल जो सिलसिला क्यूँ है
ठहर ठहर के कोई दिल में झाँकता क्यूँ है