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नज़्म
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिस ने इस दिल को परी-ख़ाना बना रक्खा था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तुम हो आपस में ग़ज़बनाक वो आपस में रहीम
तुम ख़ता-कार ओ ख़ता-बीं वो ख़ता-पोश ओ करीम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
लिखा गया है बहुत लुतफ़-ए-वस्ल ओ दर्द-ए-फ़िराक़
मगर ये कैफ़ियत अपनी रक़म नहीं है कहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जो फ़िक्र-ए-ताज़ा-दम है उस्ताद की अता है
जो कुछ किया रक़म है उस्ताद की अता है
अहमद हातिब सिद्दीक़ी
नज़्म
रक़ीब हो तो किस लिए तिरी ख़ुद-आगही की बे-रिया नशात-ऐ-नाब का
जो सद-नवा ओ यक-नवा खिराम-ऐ-सुब्ह की तरह
नून मीम राशिद
नज़्म
न पैदा होगी खत-ए-नस्ख़ से शान-ए-अदब-आगीं
न नस्तालीक़ हर्फ़ इस तौर से ज़ेब-ए-रक़म होंगे
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
क़ल्ब-ए-आहन जिस के नक़्श-ए-पा से होता है रक़ीक़
शो'ला-ख़ू झोंकों का हमदम तेज़ किरनों का रफ़ीक़
जोश मलीहाबादी
नज़्म
'रहीम' 'नानक' ओ 'चैतन्य' और 'चिश्ती' ने
इन्हीं फ़ज़ाओं में बचपन के दिन गुज़ारे थे