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नज़्म
कोई मेरे सिवा उस का निशाँ पा ही नहीं सकता
कोई उस बारगाह-ए-नाज़ तक जा ही नहीं सकता
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
फिराया फ़िक्र-ए-अज्ज़ा ने उसे मैदान-ए-इम्काँ में
छुपेगी क्या कोई शय बारगाह-ए-हक़ के महरम से
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मा'बद-ए-हुस्न-ओ-मोहब्बत बारगाह-ए-सोज़-ओ-साज़
तेरे बुत-ख़ाने हसीं तेरे कलीसा दिल-नवाज़
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ज़ीस्त को दर्स-ए-अजल देती है जिस की बारगाह
क़हक़हा बन कर निकलती है जहाँ हर एक आह
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
बारगाह-ए-हक़ में हाज़िर हो के मैं ने की दुआ
पेट से मछली के यूनुस को किया तू ने रिहा
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
तिरी बारगाह तक हो मिरी किस तरह रसाई
मुझे दी गई गदाई तुझे तख़्त-ए-ख़ुसरवाना
राबिया सुलताना नाशाद
नज़्म
वो तख़्त-ए-सल्तनत-ओ-बारगाह-ए-सुल्तानी
कि जिस में बैठते थे आ के ज़िल्ल-ए-सुब्हानी