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नज़्म
फ़लसफ़े की ख़ूबसूरत तर्जुमानी तू ने की
दश्त-ए-हू में आँसुओं से बाग़बानी तू ने की
मोहम्मद सादिक़ ज़िया
नज़्म
बाग़्बान-ए-चारा-फ़र्मा से ये कहती है बहार
ज़ख़्म-ए-गुल के वास्ते तदबीर-ए-मरहम कब तलक
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
निशान-ए-बर्ग-ए-गुल तक भी न छोड़ उस बाग़ में गुलचीं
तिरी क़िस्मत से रज़्म-आराइयाँ हैं बाग़बानों में
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बाँ
है दिन की धूप रात की शबनम उन्हें गिराँ
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
कोई दम बादबान-ए-कश्ती-ए-सहबा को तह रक्खो
ज़रा ठहरो ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-महफ़िल ठहर जाए