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रामायण का एक सीन

चकबस्त ब्रिज नारायण

रामायण का एक सीन

चकबस्त ब्रिज नारायण

MORE BYचकबस्त ब्रिज नारायण

    रुख़्सत हुआ वो बाप से ले कर ख़ुदा का नाम

    राह-ए-वफ़ा की मंज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम

    मंज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इंतिज़ाम

    दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम

    इज़हार-ए-बे-कसी से सितम होगा और भी

    देखा हमें उदास तो ग़म होगा और भी

    दिल को सँभालता हुआ आख़िर वो नौनिहाल

    ख़ामोश माँ के पास गया सूरत-ए-ख़याल

    देखा तो एक दर में है बैठी वो ख़स्ता-हाल

    सकता सा हो गया है ये है शिद्दत-ए-मलाल

    तन में लहू का नाम नहीं ज़र्द रंग है

    गोया बशर नहीं कोई तस्वीर-ए-संग है

    क्या जाने किस ख़याल में गुम थी वो बे-गुनाह

    नूर-ए-नज़र ये दीदा-ए-हसरत से की निगाह

    जुम्बिश हुई लबों को भरी एक सर्द आह

    ली गोशा-हा-ए-चश्म से अश्कों ने रुख़ की राह

    चेहरे का रंग हालत-ए-दिल खोलने लगा

    हर मू-ए-तन ज़बाँ की तरह बोलने लगा

    आख़िर असीर-ए-यास का क़ुफ़्ल-ए-दहन खुला

    अफ़्साना-ए-शदाइद-ए-रंज-ओ-मेहन खुला

    इक दफ़्तर-ए-मज़ालिम-ए-चर्ख़-ए-कुहन खुला

    वा था दहान-ए-ज़ख़्म कि बाब-ए-सुख़न खुला

    दर्द-ए-दिल-ए-ग़रीब जो सर्फ़-ए-बयाँ हुआ

    ख़ून-ए-जिगर का रंग सुख़न से अयाँ हुआ

    रो कर कहा ख़मोश खड़े क्यूँ हो मेरी जाँ

    मैं जानती हूँ जिस लिए आए हो तुम यहाँ

    सब की ख़ुशी यही है तो सहरा को हो रवाँ

    लेकिन मैं अपने मुँह से हरगिज़ कहूँगी हाँ

    किस तरह बन में आँखों के तारे को भेज दूँ

    जोगी बना के राज-दुलारे को भेज दूँ

    दुनिया का हो गया है ये कैसा लहू सपीद

    अंधा किए हुए है ज़र-ओ-माल की उमीद

    अंजाम क्या हो कोई नहीं जानता ये भेद

    सोचे बशर तो जिस्म हो लर्ज़ां मिसाल-ए-बीद

    लिक्खी है क्या हयात-ए-अबद इन के वास्ते

    फैला रहे हैं जाल ये किस दिन के वास्ते

    लेती किसी फ़क़ीर के घर में अगर जनम

    होते मेरी जान को सामान ये बहम

    डसता साँप बन के मुझे शौकत-ओ-हशम

    तुम मेरे लाल थे मुझे किस सल्तनत से कम

    मैं ख़ुश हूँ फूँक दे कोई इस तख़्त-ओ-ताज को

    तुम ही नहीं तो आग लगा दूँगी राज को

    किन किन रियाज़तों से गुज़ारे हैं माह-ओ-साल

    देखी तुम्हारी शक्ल जब मेरे नौनिहाल

    पूरा हुआ जो ब्याह का अरमान था कमाल

    आफ़त ये आई मुझ पे हुए जब सफ़ेद बाल

    छटती हूँ उन से जोग लिया जिन के वास्ते

    क्या सब किया था मैं ने इसी दिन के वास्ते

    ऐसे भी ना-मुराद बहुत आएँगे नज़र

    घर जिन के बे-चराग़ रहे आह उम्र भर

    रहता मिरा भी नख़्ल-ए-तमन्ना जो बे-समर

    ये जा-ए-सब्र थी कि दुआ में नहीं असर

    लेकिन यहाँ तो बन के मुक़द्दर बिगड़ गया

    फल फूल ला के बाग़-ए-तमन्ना उजड़ गया

    सरज़द हुए थे मुझ से ख़ुदा जाने क्या गुनाह

    मंजधार में जो यूँ मिरी कश्ती हुई तबाह

    आती नज़र नहीं कोई अम्न-ओ-अमाँ की राह

    अब याँ से कूच हो तो अदम में मिले पनाह

    तक़्सीर मेरी ख़ालिक़-ए-आलम बहल करे

    आसान मुझ ग़रीब की मुश्किल अजल करे

    सुन कर ज़बाँ से माँ की ये फ़रियाद-ए-दर्द-ख़ेज़

    उस ख़स्ता-जाँ के दिल पे चली ग़म की तेग़-ए-तेज़

    आलम ये था क़रीब कि आँखें हों अश्क-रेज़

    लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़

    सोचा यही कि जान से बेकस गुज़र जाए

    नाशाद हम को देख के माँ और मर जाए

    फिर अर्ज़ की ये मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर

    मायूस क्यूँ हैं आप अलम का है क्यूँ वफ़ूर

    सदमा ये शाक़ आलम-ए-पीरी में है ज़रूर

    लेकिन दिल से कीजिए सब्र-ओ-क़रार दूर

    शायद ख़िज़ाँ से शक्ल अयाँ हो बहार की

    कुछ मस्लहत इसी में हो पर्वरदिगार की

    ये ज'अल ये फ़रेब ये साज़िश ये शोर-ओ-शर

    होना जो है सब उस के बहाने हैं सर-ब-सर

    अस्बाब-ए-ज़ाहिरी में इन पर करो नज़र

    क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जल्वा-गर

    ख़ास उस की मस्लहत कोई पहचानता नहीं

    मंज़ूर क्या उसे है कोई जानता नहीं

    राहत हो या कि रंज ख़ुशी हो कि इंतिशार

    वाजिब हर एक रंग में है शुक्र-ए-किर्दगार

    तुम ही नहीं हो कुश्ता-ए-नैरंग-ए-रोज़गार

    मातम-कदे में दहर के लाखों हैं सोगवार

    सख़्ती सही नहीं कि उठाई कड़ी नहीं

    दुनिया में क्या किसी पे मुसीबत पड़ी नहीं

    देखे हैं इस से बढ़ के ज़माने ने इंक़लाब

    जिन से कि ब-गुनाहों की उम्रें हुईं ख़राब

    सोज़-ए-दरूँ से क़ल्ब जिगर हो गए कबाब

    पीरी मिटी किसी की किसी का मिटा शबाब

    कुछ बन नहीं पड़ा जो नसीबे बिगड़ गए

    वो बिजलियाँ गिरीं कि भरे घर उजड़ गए

    माँ बाप मुँह ही देखते थे जिन का हर घड़ी

    क़ाएम थीं जिन के दम से उमीदें बड़ी बड़ी

    दामन पे जिन के गर्द भी उड़ कर नहीं पड़ी

    मारी जिन को ख़्वाब में भी फूल की छड़ी

    महरूम जब वो गुल हुए रंग-ए-हयात से

    उन को जला के ख़ाक किया अपने हात से

    कहते थे लोग देख के माँ बाप का मलाल

    इन बे-कसों की जान का बचना है अब मुहाल

    है किब्रिया की शान गुज़रते ही माह-ओ-साल

    ख़ुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटता गया ख़याल

    हाँ कुछ दिनों तो नौहा-ओ-मातम हुआ किया

    आख़िर को रो के बैठ रहे और क्या किया

    पड़ता है जिस ग़रीब पे रंज-ओ-मेहन का बार

    करता है उस को सब्र अता आप किर्दगार

    मायूस हो के होते हैं इंसाँ गुनाहगार

    ये जानते नहीं वो है दाना-ए-रोज़गार

    इंसान उस की राह में साबित-क़दम रहे

    गर्दन वही है अम्र-ए-रज़ा में जो ख़म रहे

    और आप को तो कुछ भी नहीं रंज का मक़ाम

    बाद-ए-सफ़र वतन में हम आएँगे शाद-काम

    होते हैं बात करने में चौदह बरस तमाम

    क़ाएम उमीद ही से है दुनिया है जिस का नाम

    और यूँ कहीं भी रंज-ओ-बला से मफ़र नहीं

    क्या होगा दो घड़ी में किसी को ख़बर नहीं

    अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बाँ

    है दिन की धूप रात की शबनम उन्हें गिराँ

    लेकिन जो रंग बाग़ बदलता है ना-गहाँ

    वो गुल हज़ार पर्दों में जाते हैं राएगाँ

    रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हें अपनी जाँ की तरह

    मिलते हैं दस्त-ए-यास वो बर्ग-ए-ख़िज़ाँ की तरह

    लेकिन जो फूल खिलते हैं सहरा में बे-शुमार

    मौक़ूफ़ कुछ रियाज़ पे उन की नहीं बहार

    देखो ये क़ुदरत-ए-चमन-आरा-ए-रोज़गार

    वो अब्र-ओ-बाद बर्फ़ में रहते हैं बरक़रार

    होता है उन पे फ़ज़्ल जो रब्ब-ए-करीम का

    मौज-ए-सुमूम बनती है झोंका नसीम का

    अपनी निगाह है करम-ए-कारसाज़ पर

    सहरा चमन बनेगा वो है मेहरबाँ अगर

    जंगल हो या पहाड़ सफ़र हो कि हो हज़र

    रहता नहीं वो हाल से बंदे के बे-ख़बर

    उस का करम शरीक अगर है तो ग़म नहीं

    दामान-ए-दश्त दामन-ए-मादर से कम नहीं

    स्रोत:

    intekhab-e-chakbast (Pg. 36)

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