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नज़्म
क्या बर्तन सोने चाँदी के क्या मिट्टी की हंडिया चीनी
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चले गा बंजारा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
खाया मिट्टी के बर्तन में, सोए तो बिछौने को तरसे
मुख़तारों पर तन्क़ीदें हैं, बे-चारगियाँ मजबूरों की
जमील मज़हरी
नज़्म
क़हक़हे जैसे ख़ाली बर्तन लुढ़क लुढ़क कर टूटें
बहसें जैसे होंटों में से ख़ून के छींटे छूटें