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नज़्म
धुआँ-धार जलती चिताओं में घिर कर तड़ख़ती उछलती हूँ
कहती हूँ तक़दीर बर-हक़ है बर-हक़ है ज़िंदा अटल
शफ़ीक़ फातिमा शेरा
नज़्म
भारत की आज़ाद फ़ज़ाओं में है अब क्या ख़ौफ़
मर जाना जब बर-हक़ है तो मौत से कैसा ख़ौफ़
मासूम शर्क़ी
नज़्म
इक आदमी हैं जिन के ये कुछ ज़र्क़-बर्क़ हैं
रूपे के जिन के पाँव हैं सोने के फ़र्क़ हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
याँ हुस्न की बर्क़ चमकती है याँ नूर की बारिश होती है
हर आह यहाँ इक नग़्मा है हर अश्क यहाँ इक मोती है