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नज़्म
साज़-ए-दौलत को अता करती है नग़्मे जिस की आह
माँगता है भीक ताबानी की जिस से रू-ए-शाह
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हो लब पे नग़मा-ए-महर-ओ-वफा की ताबानी
किताब-ए-दिल पे फ़क़त हर्फ़-ए-इश्क़ हो तहरीर
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
जब ज़रूरत से ज़ियादा नाज़ फ़रमाता है इल्म
आरिज़-ए-ताबाँ के भोले-पन को खा जाता है इल्म
जोश मलीहाबादी
नज़्म
کمر سے ، اٹھ کے تيغ جاں ستاں ، آتش فشاں کھولي
سبق آموز تاباني ہوں انجم جس کے جوہر سے