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नज़्म
है दाख़िल फ़ितरत-ए-मुनइ'म में नादारों को तड़पाना
सर-ए-पा-ए-हिक़ारत से हर इक बेकस को ठुकराना
टीका राम सुख़न
नज़्म
दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएँगे
कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
दिखा वो हुस्न-ए-आलम-सोज़ अपनी चश्म-ए-पुर-नम को
जो तड़पाता है परवाने को रुलवाता है शबनम को
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये नग़्मा-ए-हयात है कि है अजल तराना-संज
ये दौर-ए-काएनात है कि रक़्स में है अहरमन