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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
हर ख़ातिर को ख़ुरसंद किया हर दिल को लुभाया होली ने
दफ़ रंगीं नक़्श सुनहरी का जिस वक़्त बजाया होली ने
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
आसमाँ की गोद में दम तोड़ता है तिफ़्ल-ए-अब्र
जम रहा है अब्र के होंटों पे ख़ूँ-आलूद कफ़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मय निकली जाम गुलाबी कुछ लहक लहक कुछ छलक छलक
हर चार तरफ़ ख़ुश-वक़्ती से दफ़ बाजे रंग और रंग होई
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों
न मैं तुम से कोई उम्मीद रखूँ दिल-नवाज़ी की