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नज़्म
और वही दर्द-ए-शिकस्ता-पा जो शायद ग़ैर-रस्मी पर
उस दिल के अब तक ज़िंदा रह जाने का तन-ए-तन्हा सबब है
मोईन निज़ामी
नज़्म
परतव रोहिला
नज़्म
शीशियाँ रस्मी जुमलों की आग़ोश में कसमसाती रहीं
बे-ख़्वाब बिस्तर पे बे-रंग सी तितलियाँ
बदनाम नज़र
नज़्म
मुज़्तरिब है तू कि तेरा दिल नहीं दाना-ए-राज़
गुफ़्त रूमी हर बना-ए-कुहना कि-आबादाँ कुनंद
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुख़्तलिफ़ हर मंज़िल-ए-हस्ती को रस्म-ओ-राह है
आख़िरत भी ज़िंदगी की एक जौलाँ-गाह है