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नज़्म
वो भूले ज़मानों के मुबहम किनारे
वो मानूस रेतों पे बनती बिगड़ती कई साअतें, रंजिशें, राहतें,
रियाज़ लतीफ़
नज़्म
गर कभी ख़ल्वत मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से
क़िस्सा-ए-आदम को रंगीं कर गया किस का लहू
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तेरे पैराहन-ए-रंगीं की जुनूँ-ख़ेज़ महक
ख़्वाब बन बन के मिरे ज़ेहन में लहराती है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
उन का आँचल है कि रुख़्सार कि पैराहन है
कुछ तो है जिस से हुई जाती है चिलमन रंगीं