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नज़्म
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
कहाँ हैं वो कि जो ख़ुद को ख़ुदा समझते हैं
वो जो कि अम्न-ओ-अमाँ के फ़साने कहते हैं
शिफ़ा कजगावन्वी
नज़्म
हक़ीक़त को समझना चाहते हैं साल और सिन की
ये सब मजबूर हैं इन पर दर-ए-तौबा खुला रखना
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
समझना चाहिए मजबूरियाँ अहल-ए-चमन को सब्ज़ बेलों की
नुमू मुहताज है जिन की हमेशा इक सहारे की