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नज़्म
मुझ ऐसे कितने ही गुमनाम बच्चे खेले हैं
इसी ज़मीं से इसी में सुपुर्द-ए-ख़ाक हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
तो ये तो होता है ये तो होगा
हम अपने जज़्बों को मुंजमिद रायगाँनियों के सुपुर्द कर के
नोशी गिलानी
नज़्म
ख़ुशियों का ज़िक्र नहीं करते जो कब की सुपुर्द-ए-ख़ाक हुईं
बस दोनों टूटते रहते हैं
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
शकेब जलाली
नज़्म
मैं ने इस्मत के सनम ख़ानों को मिस्मार किया
अपनी बहनों को सुपुर्द-ए-सर-ए-बाज़ार किया
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
किया अफ़्साना दुनिया का सुपुर्द-ए-ख़ामा जब मैं ने
तो अफ़्सूँ दीन-ए-क़य्यिम का नज़र बैनस्सुतूर आया