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नज़्म
चिड़ियों की तरह दाने पे गिरता है किस लिए
पर्वाज़ रख बुलंद कि तू बन सके उक़ाब
सय्यद वहीदुद्दीन सलीम
नज़्म
लेकिन मेरा ग़ुस्सा किस शेर के बदन में झरझराता है?
मेरी आग किस उक़ाब की आँखों में कपकपाती है?
ज़ाहिद इमरोज़
नज़्म
नए नगीनों की आरज़ू है
मगर अभी तो उक़ाब जैसी ख़िज़ाँ के पंजे लहू में ग़लताँ बदन ज़मीं में गड़े हुए हैं