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नज़्म
बयाँ करती हूँ क्यूँ रूठी रही है ज़िंदगी मुझ से
ग़लतियाँ हैं जो मेरी सब सर-ए-औराक़ रखती हूँ
असना बद्र
नज़्म
कि इस निस्बत से ज़हर ओ ज़ख़्म को सहना ज़रूरी है
अजब ग़ैरत से ग़ल्तीदा-ब-ख़ूँ रहना ज़रूरी है
जौन एलिया
नज़्म
तेरी आँखों में हैं ग़लताँ वो शक़ावत के शरार
जिन के आगे ख़ंजर-ए-चंगेज़ की मुड़ती है धार
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हमारी धड़कनें तेरे ही बाम-ओ-दर में पिन्हाँ हैं
तिरे माहौल में हम सब के महसूसात ग़लताँ हैं
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
रक़्साँ चला गया न ग़ज़ल-ख़्वाँ चला गया
सोज़-ओ-गुदाज़ ओ दर्द में ग़लताँ चला गया
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ज़ख़्म खाए हुए मज़दूर के बाज़ू भी तो हैं
ख़ाक और ख़ून में ग़लताँ हैं नज़ारे कितने