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नज़्म
خود بخود گرنے کو ہے پکے ہوئے پھل کي طرح
ديکھيے پڑتا ہے آخر کس کي جھولي ميں فرنگ!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
پیرِ مغاں! فرنگ کی مے کا نشاط ہے اثر
اس میں وہ کیفِ غم نہیں، مجھ کو تو خانہ ساز دے
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मर्हबा ऐ नौ-गिरफ़्तारान-ए-बेदाद-ए-फ़रंग
जिन की ज़ंजीरें ख़रोश-अफ़ज़ा-ए-ज़िंदाँ हो गईं
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
रास्त-गुफ़्तार कि हैं नाक़िद-ए-औलाद-ए-फ़रंग
वक़्त कहता है कि फिर दाख़िल-ए-ज़िंदाँ होंगे
शोरिश काश्मीरी
नज़्म
मेरे दिल को याद है अब तक वो सत्तावन की जंग
जिस के बा'द इस सरज़मीं पे छा गए अहल-ए-फ़रंग