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नज़्म
वो एक तड़प वो एक लगन कुछ खोने की कुछ पाने की
वो एक तलब दो रूहों के इक क़ालिब में ढल जाने की
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
क्या ये मुमकिन नहीं कि हम अपनी जानें इक ही क़ालिब में समो लें
ताकि मन-ओ-तू का झगड़ा ही मिट जाए
फ़ारूक़ नाज़की
नज़्म
कुछ ऐसे बस गए हो दिल में आँखों में तसव्वुर में
कि दो क़ालिब हैं लेकिन एक जाँ मालूम होती है