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नज़्म
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
गर मिरा हर्फ़-ए-तसल्ली वो दवा हो जिस से
जी उठे फिर तिरा उजड़ा हुआ बे-नूर दिमाग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
लोग ज़ालिम हैं हर इक बात का तअना देंगे
बातों बातों में मिरा ज़िक्र भी ले आएँगे
कफ़ील आज़र अमरोहवी
नज़्म
प्यार पर बस तो नहीं है मिरा लेकिन फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूँ या न करूँ
साहिर लुधियानवी
नज़्म
मिरा तो कुछ भी नहीं है मैं रो के जी लूँगा
मगर ख़ुदा के लिए तुम असीर-ए-ग़म न रहो