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नज़्म
मुज़्तरिब-बाग़ के हर ग़ुंचे में है बू-ए-नियाज़
तू ज़रा छेड़ तो दे तिश्ना-ए-मिज़राब है साज़
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो इक मिज़राब है और छेड़ सकती है रग-ए-जाँ को
वो चिंगारी है लेकिन फूँक सकती है गुलिस्ताँ को
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जिस की नादानी सदाक़त के लिए बेताब है
जिस का नाख़ुन साज़-ए-हस्ती के लिए मिज़राब है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
शौक़ की शोरिश जमाल-ओ-नूर का सैलाब है
हर कली साज़-ए-तरब है हर नज़र मिज़राब है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ज़बान-ए-शेर से अब भी तिरी आवाज़ सुनता हूँ
जो निकला था तिरी मिज़राब से वो साज़ सुनता हूँ
मयकश अकबराबादी
नज़्म
कोई अफ़्साना किसी टूटी हुई मिज़राब का
फ़स्ल-ए-गुल में राएगाँ अर्ज़-ए-हुनर जाने की बात
शाज़ तमकनत
नज़्म
ख़ुदी का ज़ख़मा है मिज़राब-ए-साज़-ए-कौन-ओ-मकाँ
ख़ुदी का साज़ ग़ज़ल-ख़्वाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
उँगलियाँ काठ की मिज़राब पे फिर रेंग गईं
दोनों पट ख़्वाब से चौंके तो मअ'न चीख़ उठे